Red Paper
International Journal of Multidisciplinary Trends
  • Printed Journal
  • Refereed Journal
  • Peer Reviewed Journal
Peer Reviewed Journal

2025, Vol. 7, Issue 12, Part A

तुलसीदास के काव्य में सामाजिक विवेचना


Author(s): अनुराग मिश्रा, अविनाश पाण्डेय

Abstract:
गोस्वामी जी के काव्य की विवेचना के प्रसंग में तथा भक्त कवियों के बीच उनकी विशिष्टता के संदर्भ में आचार्य शुक्ल का सूत्र वाक्य है कि प्रत्येक मानव स्थिति में अपने को डालकर उसके अनुरूप भाव का अनुभव, जीवन की प्रत्येक स्थिति के मर्मस्पर्शी अंश का साक्षात्कार, हिंदी के सभी कवियों में उनकी सर्वांगपूर्ण भावुकता, मानव प्रकृति के अधिकाधिक रूपों के साथ उनके हृदय का रामात्मक सामंजस्य। काव्य-सृजन के इन विशिष्ट उपादानों की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा था-‘‘यदि कहीं सौंदर्य है तो प्रफुल्लता, शक्ति है तो प्रणति, शील है तो हर्ष पुलक, गुण है तो आदर, पाप है तो घृणा, अत्याचार है तो क्रोध, अलौकिकता है तो विस्मय, पाखंड है तो कुढ़न, शोक है तो करुणा, आनन्दोत्सव है तो उल्लास, उपकार है तो कृतज्ञता, महत्व है तो दीनता, तुलसीदास के हृदय में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से विद्यमान है।’’
रामकथा में अंतर्भूत विराट जीवन का वैविध्य तथा मुगल शासन के अंतर्गत दुर्दशाग्रस्त वैषम्यपूर्ण जनजीवन-वे दोनों परस्पर घुलमिल गए हैं। उपर्युक्त दोनों पहलुओं की परस्पर घुलनशीलता से तुलसी का काव्य इतना मार्मिक और भाव-व्यंजक हो गया है कि उत्तरी भारत के हिंदी भाषी अपढ़ जनगण तक सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, द्वेष-ईष्र्या के क्षणों में तुलसी के वाक्यों को स्वयंसिद्ध लोकोक्ति के रूप में उद्धृत कर देते हैं, कभी संत और असंत, सज्जन और दुर्जन का फर्क समझाते हुए, कभी खलों का स्वभाव बतलाते हुए, कभी अन्याय और अत्याचार का हवाला देते हुए, कभी नीति और अनीति, सदाचार और दुराचार की व्याख्या करते हुए। इसीलिए कहा जाता है कि तुलसी लोकप्रिय हैं, लोकहृदय के मर्मज्ञ हैं। कुछ लोग धर्म और भक्ति के लिए भी उन्हें याद करते हैं। हिंदू गृहस्थ परिवारों में रामचरितमानस के नियमित पाठ का भी चलन अभी समाप्त नहीं हुआ है। लेकिन तुलसी धर्म और भक्ति के मार्ग के पथ-प्रदर्शक के नाते बीसवीं सदी के श्रोताओं-पाठकों के लिए उतने प्रासंगिक नहीं है, जितने नैतिक लोकानुभव के सूक्तिकोश के रूप में। जब तक यह उत्पीड़नकारी वैषम्यपूर्ण समाज व्यवस्था है तब तक तुलसी काव्य की वैविध्यपूर्ण व्यंजना की शक्ति क्षीण नहीं पड़ेगी। इस व्यंजना में भक्ति, धर्म, नैतिकता, मानवीय मूय, संयक्त परिवार की आचार संहिता, न्याय- अन्याय बोध सब कुछ समाहित रहता है। जीवन के विराट दृश्य-फलक पर तुलसी की दृष्टि की चर्चा अपूर्ण प्रतीत होगी। यदि कलियुग और राम राज्य के वर्णन को ध्यान से न पढ़ें, यदि आप दीन-दुःखी और दरिद्र जनसाधारण के प्रवक्ता और परामर्शदाता के रूप में गोस्वामी जी के विनय संबंधी पदों और गीतों की संवेदनशीलता में अंतर्निहित गहरी व्यंजना को न समझें। ‘‘वैराग्य संदीपनी’’ से ‘‘हनुमान बाहुक’’ तक एक रचयिता के रूप में तुलसी में हो रहे निरंतर परिवर्तनों पर ध्यान देना आवश्यक है, वर्ना उनकी कविताओं के बदलते हुए बहु-अर्थ और उनकी रंगारंग बहु-छवि को आत्मसात नहीं कर पायेंगे। वीतराग और वैष्णव हो जाने के बावजूद युग के यथार्थ पर उनकी दृष्टि थी, अतः उनके विचार-संस्कार बाहर की दुनियां से टकरा रहे थे।
तुलसी के रचना संसार के तीनों चरण बाह्य विश्व से अनुकूलित है। इसीलिए यह माना जाता है कि अपने युग और समाज के मुखर प्रवक्ता और प्रतिबिम्ब के रूप में भक्त कवियों के बीच तुलसी अद्वितीय हैं। उनके संपूर्ण काव्य कृतित्व में मानवतावादी नैतिकता (‘‘परहित जैसा कोई पुण्य नहीं तथा परपीड़ा जैसा कोई पाप नहीं’’) अंतःसलिला के रूप में प्रवाहमान है। रचयिता की यह नैतिकता उनके काव्य विवेक के रूप में सर्वत्र विद्यमान है।



DOI: 10.22271/multi.2025.v7.i12a.860

Pages: 01-04 | Views: 41 | Downloads: 13

Download Full Article: Click Here

International Journal of Multidisciplinary Trends
How to cite this article:
अनुराग मिश्रा, अविनाश पाण्डेय. तुलसीदास के काव्य में सामाजिक विवेचना. Int J Multidiscip Trends 2025;7(12):01-04. DOI: 10.22271/multi.2025.v7.i12a.860
International Journal of Multidisciplinary Trends
Call for book chapter
Journals List Click Here Research Journals Research Journals