ग्राम विकास में ग्राम पंचायत की भूमिका
Author(s): गुलशन कुमार रजक
Abstract: प्राचीन ‘ग्राम गणतंत्र’ में पंचायतों की स्थापित परंपरा के संदर्भ में स्थानीय संस्था के रूप में ग्राम पंचायत का ग्रामीण भारत में एक लम्बा इतिहास है जिसका विस्तृत विवरण कौटिल्य के अर्थशास्त्र के सतरहवें अध्याय में तथा शुक्राचार्य के नीतिसार में मिलता है जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में उद्धृत किया है। पंचायत भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पहचान है। यह हमारी गहन सूझ-बूझ के आधार पर व्यवस्था निर्माण करने की क्षमता का परिचायक है। यह हमारे समाज में स्वाभाविक रूप से समाहित स्वावलम्बन, आत्मनिर्भरता एवं सम्पूर्ण स्वतंत्रता के प्रति लगाव का घोतक है ।
इन पंचायतों की भूमिका मुख्य रूप से विवादों का निपटारा करना था, जबकि जातीय पंचायतें सदियों से चलन में थीं जो अपने समाज की समस्याओं का निपटारा करती थीं। शुरू-शुरू में पंचायत किसी निश्चित क्षेत्र से चुने पाँच प्रतिष्ठित व्यक्तियों की एक निकाय होती थी। इसका निश्चित क्षेत्र एक गाँव हुआ करता था। देश और राज्य की सीमाएं बड़ी-छोटी होती रही । भाषा और सत्ता के आधार पर देश और राज्य की व्यवस्था में परिवर्तन होता रहा, परन्तु गाँव/पंचायत एक स्थिर इकाई बना रहा। भौगोलिक एवं सामाजिक दोनों तरह से इन सभी बदलावों से अछूता रहा। सहमति जन्य प्रकृति के कारण पंचायतें एक लम्बी अवधि तक कार्यरत रही लेकिन मुगल काल तक आते-आते इनकी प्रभावकारिता कम हो गयी। पुनः ब्रिटिश शासनकाल में फेमिन कमीशन तथा 1882 के रिपन प्रस्ताव ने स्थानीय ग्रामीण मामलों के प्रशासन से लोगों को सम्बद्ध करने के उद्देश्य से ग्राम पंचायतों को गठित और विकसित करने पर जोर दिया गया। परिणामस्वरूप कई प्रांतों में सीमित कार्यों के साथ ग्राम पंचायतों को गठित किया गया जिसे स्वतंत्रता आन्दोलन के नेताओं का भरपूर साथ मिला। गाँधी जी का ग्राम स्वराज की संकल्पना ने भी पंचायती राज की अपरिहार्यता को स्वीकार किया ।
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How to cite this article:
गुलशन कुमार रजक. ग्राम विकास में ग्राम पंचायत की भूमिका. Int J Multidiscip Trends 2025;7(10):34-38.