International Journal of Multidisciplinary Trends
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2024, Vol. 6, Issue 9, Part A

उदात्तकर्ण महाकाव्य के प्रथम पाँच सर्गों में रसाभिव्यक्ति


Author(s): शैलेश कुमार कुशवाहा

Abstract: अनादिकाल से ही रस के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् में स्पष्ट रूप में कहा गया है-
रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।1
काव्यशास्त्र में सर्वप्रथम भरतमुनि ने रस सिद्धान्त का मूल सूत्र लिखा है-
"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:"2
इसका अर्थ यह है कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस सूत्र में ‘संयोग’ और ‘निष्पत्ति’ यह दो पद बड़े महत्त्व के हैं। इनके वास्तविक अर्थ के विषय में बड़ा ही मतभेद है।
रस का विवेचन करते हुए आचार्य मम्मट कहते हैं- लोकव्यवहार में जो कारण, कार्य और सहकारी कारण होते हैं वे जब नाटक एवं काव्य में रति आदि स्थायी भाव के होते हैं, तब उन्हें कारण, कार्य और सहकारी कारण न कहकर क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव कहते हैं और उन विभाव आदि द्वारा जो स्थायी भाव व्यक्त होता है वह ‘रस’ कहलाता है।3
कविराज विश्वनाथ ने रस का स्वरूप निर्धारित करते हुए लिखा है -
विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता हुआ रति आदि स्थायी भाव सहृदयों के लिए रसत्त्व को प्राप्त करता है।4


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How to cite this article:
शैलेश कुमार कुशवाहा. उदात्तकर्ण महाकाव्य के प्रथम पाँच सर्गों में रसाभिव्यक्ति. Int J Multidiscip Trends 2024;6(9):01-06.
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