हिन्दी आत्मकथाओं में लेखिकाओं की पुरुषों के प्रति मानसिकता
Author(s): डॉ. हरिशंकर प्रजापति
Abstract: आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नाटकए निबंध, कहानी और उपन्यासों में तो विकास की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से दिखती है, लेकिन आत्मकथा एक ऐसी विधा है जो सत्य और यथार्थ के धरातल पर आधारित होती है। यह लेखक के व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों की वास्तविक अभिव्यक्ति है। जीवनी और आत्मकथा में मुख्य अंतर यह है कि जीवनी किसी महान व्यक्ति के जीवन के उज्ज्वल पक्ष को दर्शाती है, जबकि आत्मकथा स्वयं लेखक के जीवन के संघर्षों, दुखों और अनुभवों का पर्दाफाश करती है। प्राचीन काल से महिलाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से अधीन समझा गया, और उन्हें सामाजिक, कानूनी और धार्मिक अधिकारों से वंचित किया गया। 1848 में स्त्रीवादी आंदोलन ने नए रूप में उभार लिया, जिसने महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार की दिशा में काम किया। इस पृष्ठभूमि में कई महिलाओं की आत्मकथाएँ सामने आईं, जिनमें उन्होंने पुरुषवादी समाज और पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं का विरोध किया और अपने जीवन के संघर्षों को व्यक्त किया। कुसुम असंल, कृष्णा अग्निहोत्री, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, और सुशीला टाकभौरे जैसी लेखिकाओं की आत्मकथाएँ पुरुषवादी मानसिकताए जातिवाद और महिलाओं के प्रति सामाजिक भेदभाव के खिलाफ एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। इन लेखिकाओं ने न केवल अपने व्यक्तिगत संघर्षों को उजागर किया, बल्कि समाज में स्त्री के स्थान को लेकर एक नई सोच को जन्म दिया। इन आत्मकथाओं में स्त्रीण्चेतनाए अस्मिता और सामाजिक न्याय की बात की गई है, जो स्त्री मुक्ति के आंदोलन की दिशा में मील का पत्थर साबित हुई हैं।
Pages: 133-137 | Views: 29 | Downloads: 16Download Full Article: Click Here
How to cite this article:
डॉ. हरिशंकर प्रजापति. हिन्दी आत्मकथाओं में लेखिकाओं की पुरुषों के प्रति मानसिकता. Int J Multidiscip Trends 2019;1(1):133-137.